मूर्खों की महफ़िल
ज़िंदगी भी ना जाने कैसे नाच नाचती है,
आए दिन मुझे मूर्खों की संगत में बैठा जाती है।
संग का रंग मुझ पर भी हावी हो रहा था,
ख़ुद पर से अपने हौसलों पर से
विश्वास खो रहा था।
फिर आख़िर निश्चय कर लिया एक दिन,
गुरु की सिखनी हूँ,
गुरु की शरण में ही सुख...
आए दिन मुझे मूर्खों की संगत में बैठा जाती है।
संग का रंग मुझ पर भी हावी हो रहा था,
ख़ुद पर से अपने हौसलों पर से
विश्वास खो रहा था।
फिर आख़िर निश्चय कर लिया एक दिन,
गुरु की सिखनी हूँ,
गुरु की शरण में ही सुख...