...

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एक आवाज़
कईं लहरों का कारवां यूं बनता चला गया ।
जैसे तबियत से पत्थर फैंका हो समंदर में ।।

पहले बस गुमनामियाँ ही गुमनामियां थीं ।
अब नज़ारे ही नज़ारे हैं इस मंज़र में ।।

कईं पर्वत हिला देती है यह ।
जो एक आवाज़ उठी अंदर से ।।

एक आवाज़ हुई दो , दो हुईं चार ।
इतिहास बदल देते हैं , आवाज़ों के बवंडर ये ।।

जगमगा उठे यह दर _ ओ _ दीवार ।
कल तक जो महज़ खंडर थे ।।
जैसे तबियत से पत्थर फैंका हो समंदर में ।।।