...

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एक ज़माना।
वो भी क्या ज़माना था।
नदियों में बेहता बेगाना सा एक अफ़साना था।
खेतों में लहराते मस्ताना सा एक गाना था।
खतों में लिखा कथाओं का पैगाम था।
गालियों में गूँजता नन्ही कदमों का सान था।
घरों में झूमता संगम का सैलाब था।
आंगन में खिलता चिड़ियों का मैदान था।
मुर्गे के गूंज से दिन और जुगनुओं
की चमचमाहट से रात थी ।
पेड़ों में आम और पूरे गाँव चोरों का नाम था।
दो या चार नहीं पूरे गठन का निर्माण था।
बारिश के पहली बूंद मट्टी चूम कर
खुशबू से फैलाता मिलन का पहचान था।
हाई या हेलो नहीं भगवानों के नाम से होता
सभी का सामना था।
मेरा या तुम्हारा नहीं हमारा एक मकान था।
ना फोन ना टीवी बस बातों का
एक अलग ही मिज़ाज था।
वो भी क्या ज़माना था।