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मिट्टी का माधो नहीं
बच्चे कच्ची मिट्टी के नहीं, धातु के बने होते हैं।
जिनहें परिवार और शिक्षक एक साँचे में तो ढाल देते हैं,
लेकिन फ़िर भी वो बदल जाते हैं;
परिवारों और शिक्षकों से बने इस समाज में
हर तरफ़ से घिस कर,
अपने ही ढंग के, पर जग-बेढंगे हो जाते हैं;
अपनों और गैरों से भरे इस समाज में
हज़ारों ठोकरें खा कर।
और फ़िर तुम तालीम पे सवाल उठाओगे
या परवरिश को ग़लत ठहराओगे,
पर ये भूल जाओगे, कि
अनुभव अपने जो हमें सुनाते हो
वो तुम्हारे अपने हैं, तुम्हारी पहचान है,
कच्ची मिट्टी के होते तो
पहली चोट से ही बिखर जाते,
ये ठोकरों के दाग ही तो
इंसानियत के निशान हैं!
धब्बे तो सब में हैं, बस घाव गहरा ना हो
तो वो पहली चादर पक्की रखना,
परवरिश, तालीम पर उँगली ना उठे कभी
तो इंसानियत की सीख ज़रूर दे देना।
और ताउम्र याद रखना कि,
जैसे हर सांचा बढ़िया होता है
दाग इस्तेमाल से आते हैं,
अच्छी बातें सब सिखाते हैं
ख़राब तो, अनुभव बना जाते हैं;
जैसे छोटा-बड़ा हर औज़ार
किसी न किसी काम आता है,
हर एक शख़्स अपनी एहमियत
अपने साथ लाता है।


© bani745