...

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खुदगर्ज़
अंधेरे में खुद को देख पाना केसा होगा
जहाँ नहीँ है आसमाँ, जमीं केसे होगा
उड़ान भरे जो पँछी,
जहाँ थके वहीं, बसेहरा होगा

जो मिले दुआओं में, रूहानियत भी कहीँ
तरतीब-ए-खुदा, एक तो ज़माना होगा

में खुदगर्ज़ ही सही, अकेले आसमाँ मे
कुछ बस मेरा होगा, शिर्फ़ मेरा होगा

हाफिज़ा है बहत, ज़ाहिर है के दर्द भी है
मयसर है सुकून भी,
इबारात में लफ्ज़ है, मुंतज़िर है, अर्ज़ी भी है

ब-दस्तूर है ये हालातें,
इनायात की जुस्तजू भी है,
फ़िर में भी तो हूँ खुदगर्ज़..
ये अफ़ताब भी मेरे, ये शफ़क़ भी मेरी है

छुँ कर जो गुज़रे नवाज़िसें
हो क़यामत की ही, साज़ीश है
तू तबाह कर मुझे इमरोज़, में फ़ैज़ बनके आऊँगा
खुदगर्ज़ हूँ
या तो मौतज़ा होगी, या में फ़ना हो जाऊँगा


© wingedwriter