...

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मैं निकल पड़ती हूँ
मैं हर बार
उन्हीं दोहराये रास्तों पर
निकल पड़ती हूँ,
भूली बिसरी वो गलियाँ
फिर याद आ जाती हैं।
मैं मन को मनाती हूँ
फिर किसी चौखट से,
वापस लौट आती हूँ
ठिठकती हूँ
मिचलाती हूँ
कहीं अंचल समेटती हूँ,
कहीं संकुचाती नज़रे
कोने कोने फिराती हूँ।
क्या लौटना भी,
आसान नहीं होता
हर बार
जहाँ लौट कर आने को मन करें
वो घर नहीं होता!
मैं छोड़ी हुई निशानियों पर
फिर पग धरती हूँ,
फिर उन झरोखों से
झाँक कर देखती हूँ,
मेरा मक़सद लौट जाना नहीं है,
पर पढ़ी हुई क़िताबों को
दोहराना भी सही नहीं हैं।


© maniemo