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महफ़िल ख़त्म न हो तो मैं उठता नहीं हूं...
ठहरा हुआ दरिया हूं अब बहता नहीं हूं।
मैं अपने आप में बिल्कुल रहता नहीं हूं।।
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उसका हुनर है कि क्या क्या नहीं करता,
वो भी सुन लेता है जो मैं कहता नहीं हूं।।
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मेरे सारे दोस्त मेरी इसी अदा पे फ़िदा हैं,
महफ़िल ख़त्म न हो तो मैं उठता नहीं हूं।।
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मुझे फ़क्र है कि मेरे अहबाब कामयाब हैं,
मैं उनकी इस बरक्कत से जलता नहीं हूं।।
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इस से बढ़ा कोई और झूठ हो नहीं सकता,
सियासतदां कह दें कि मैं पलटता नहीं हूं।।
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शून्य हो चुका है "सिफ़र" फ़र्क नहीं पड़ता,
लाख हंसने की बात हो पर हँसता नहीं हूं।।
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© संजय सिफ़र