...

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"एक संवाद ढलते सूरज के साथ"
प्रतिदिन की भांति में ढलते सूरज के साथ कर रही थी संवाद;
और प्रतिदिन की भांति एक बार फिर किसी ने मेरी इस आदत पर कर खडा कर दिया अपवाद।

शायद वो मानते थे ढलते हुए सूरज को अशुभ;
लेकिन मैं हर बार यही कहकर टाल देती उनकी बात कि प्रकृति का हर कण होता है शुभ।

लेकिन यह क्या आज सूरज स्वम् बोल पडा;
मानों अपने हक की बात लिए हो खडा।

सूरज बोला कहने को तो मैं ढल रहा हूं;
लेकिन मैं हर क्षण चल रहा हूं।

मैं ढलकर चांद को उसकी शक्ति प्रदर्शन का मौका दे रहा हूं;
मत छीनना कभी किसी का हक यही कहकर एक देश से दूजे देश का रुख कर रहा हूं।

मेरे अदृश्य होने का तात्पर्य मेरा ढलना नहीं;
और हां मुझे थका हुआ समझने की भूल कभी करना नहीं।

ऐ मानव तूने क्यूं अपने मन को नकारात्मकता से है भरा हुआ;
देख तो सही जरा प्रकृति का तो हर कण शुभता से है सजा हुआ;


© PARUL DUBEY KI LEKHNI SE ✍️