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निस के आँचल में
ये चँदा चमके निशा की आँचल में
शीतल-उज्जवल, सुंदर-निर्मल
रात घनेरी, पहर है भारी, सिर पर बोझ लिए जाती 'वो सवारी'
कौन है 'वो', जाना कहाँ है ,
क्या है मंज़िल, पता कहाँ है
बस चलते जाए, चलते जाए
ना इधर को ताके ना उधर देखे
साधे चाल से चलता जाए
निर्जन, बीहड़ में अपने लिए राह बनाए
पथ में कांकड़-पत्थर अनेक सारे
फ़िर भी 'वो' चलता जाए, चलता जाए।

रात अँधेरी, है घनेरी
राहें रोके सारे पथिकों की
'वो पथिक' भी ना कोई अपवाद भला
है निसा ये घनेरी खड़ी उसकी राह में
अड़कर, लड़कर, डंटकर,...