...

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सहरा-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी के सहरा में महकी फ़ज़ाएँ ही नहीं,
कैसे खिलता गुल कोई, आईं बहारें ही नहीं।

ढूॅंढता फिरता रहा मैं, इक निशान-ए-रहगुज़र,
जानिब-ए-मंज़िल ख़ुदाया कोई राहें ही नहीं।

हर करम की इब्तिदा होती है तेरे नाम से,
ए ख़ुदा तेरी इनायत की ज़कातें ही नहीं।

कैसे तानूॅं शामियाना ज़िन्दगी की धूप में,
पास में उम्मीद की पक्की तनाबें ही नहीं।

बा-यकीं करता रहा मैं बस मुसलसल कोशिशें,
मेरे दर पे आज भी कोई जज़ाऍं ही नहीं।

तेरा हर इक फ़ैसला मंज़ूर है मेरे ख़ुदा,
इस अदालत में मेरी क़ाबिल दलीलें ही नहीं।

ये बता क्या ही कमी है मेरी मेहनत में ख़ुदा,
क्या मेरे हाथों में क़िस्मत की लकीरें ही नहीं।
© Azaad khayaal