पन्ने डायरी के
आओ जरा समीप बैठो मेरे, तुम्हें अपने आराध्य की तरह सजा दू, अपने बीत चुके जीवन से कुछ पुष्प चुन चढ़ाऊं तुम पर, माना मैंने की इन फूलों में सुगंध कुछ वैसी भर न सका लड़खड़ा के जो गिरा तो इन टहनियों के भल भी उठ न सका, जानो तो विश्वास से भरा कैसे न लौटता तुम तक।
कहने को काफी कुछ था जब भी लौटा उस वक्त में, काश उन टूटे अण्डे तिरछे शब्दो से ही सही मन के दर्पण में तुम्हें तुझ से मिलता, और न निकलता कुछ तो तेरे माथे पर ऊंगली के स्पर्श से हर वाक्या महसूस ही...
कहने को काफी कुछ था जब भी लौटा उस वक्त में, काश उन टूटे अण्डे तिरछे शब्दो से ही सही मन के दर्पण में तुम्हें तुझ से मिलता, और न निकलता कुछ तो तेरे माथे पर ऊंगली के स्पर्श से हर वाक्या महसूस ही...