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रद्दी के टुकड़े
रद्दी के टुकड़े

मुद्द्दतो पहले दिल के तिज़ोरी में
रखा था तेरे प्यार रूपी खजाने को
यादों के वस्त्रों में लपेटकर,
आंसुओं के तिज़ोरी में भरकर।

रखा था अपनों से हटाकर,
गैरों से भी बचाकर...
सिसकियों में कहीं दबाकर
मुस्कराहटो में ... छुपाकर।

मंज़ूर था मुझे...
मुकद्दर के फ़ैसलों को स्वीकारना।
नहीं था मंज़ूर पल भर के लिए भी,
यादों रुपी अनमोल पारस से दूर रहना।

बरसों बाद आज सैलाब आया है,
तिज़ोरी को सम्भालने की कोशिश में,
मैं लहुलुहान हो गई, ज़खमी हो गई
टूट कर बिखर गई...।

बेरहम समय के हथौड़े ने जब तिज़ोरी
को तोड़ा, तो मैं अचम्भित रह गई,
जिसको मैंने सम्भाला था अनमोल खज़ाना समझ
कर वह सिर्फ़ कुछ रद्दी के टुकड़े पड़े थे उलझ कर।
©हेमा