...

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ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
प्यार जब से रौशनी को तीरगी से हो गया
दिल मिरा नाराज़ तब से हर किसी से हो गया

न तड़प है न सिसक है न ही मातम है कहीं
दूर जब से आदमी भी आदमी से हो गया

जो नहीं मुमकिन कभी दिल कर रहा वो ख़्वाहिशें
इश्क़ सहराओं को जैसे इक नदी से हो गया

था कभी जो सब्ज़ तेरी चाहतों की छाओं में
पेड़ दिल का ज़र्द तेरी बेरुख़ी से हो गया

दौर ऐसा भी कभी आएगा सोचा था नहीं
तंग हर कोई जहाँ में ज़िंदगी से हो गया

ज़लज़ला फ़ित्ने बवंडर हर तरफ़ ही उठ रहें
क्या ख़ुदा नाराज़ फिर से आदमी से हो गया

आज जाना लोग पागल क्यों 'सफ़र' के पीछे हैं
दर्द सब का दूर उस की शाइरी से हो गया
© -प्रेरित 'सफ़र'