ग़ज़ल
मौत को ज़िंदगी समझता हूँ
तुम बताओ ,मैं किस तरह का हूँ
उसकी तस्वीर मत दिखाओ तुम
यार मैं जस्ट अभी ही रोया हूँ
शक्ल से तुम समझ न पाओगे
ख़त तो भीतर है ,मैं लिफ़ाफ़ा हूँ
मिल गयी है नयी ख़ुराक मुझे
याद खाता हूँ ,याद पीता हूँ
रूह से ख़ूँ टपकना जायज़ है
इश्क़ के शहर का बसेरा हूँ
सच भी अब झूठ लगता है 'जर्जर'
मर चुका हूँ मगर ,मैं ज़िंदा हूँ