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एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में ।।।



मगर मेरा तो यह मनना और कहना है,
कि तूं क्यों कहती हैं की तूं ,
मुझे सीने से लगाना चहाती है ,
क्योंकि सीने से हम उन्हें लगाते जो हम से अलग हो,
लेकिन हम दो जिस्म एक जां है,
तो क्या हुआ अगर हम एक साथ ना सके,
आंखें बंद करके देखो,
उस रात को याद करो जब सिर्फ तुम और मैं थे,
और हमारी तन्हाई थी,
तुम कहती हो कि तुम्हारा जी करता है -
कि तूं मुझे सीने से लगाना चहाती है,
मगर सीने से उन्हें लगाते हैं जो अलग हो,
और हम तो दो जां एक जिस्म है,
क्यों तुम भूल गई वो दिन -
वो हसीन राते -
जो हम ने एक दूसरे के साथ गुज़ारी थी,
एक दूसरे की बाहो के आगोश में थे हम जब,
क्या तुम वो सबकुछ भूल गाई जो हमारे बीच उस रात हुआ था-
इसलिए मैं कुछ अर्ज़ करना चाहूंगा -
क्योंकि जब मैं तेरी हर सांस में ,
तेरी हर नवज में ,
तेरे रूम रूम में ,
मैं ही हूं ,
मैं ही तू है -तू ही मैं हूं,
तू तो मेरा भी सार है,
तू ही है माइया,
तू ही है प्रेमदिवानी,
तू ही है मेरे अस्तित्व का सार,
मैं अगर माया हूं तो तू प्रेम है,
इसलिए हम दोनों एक है,
हम एक दूजे का सार अस्तित्व है ,

ये जग हमारा है मगर मेरे प्राणों के लिए तूने अपना अस्तित्व खो दिया और मुझमें लीन हो गई ।।
मेरी बांसुरी की लय गाता तेरे लिए ,
और तू दौड़ी -दौडी चली आती मेरे लिए,
मगर जब सवाल आया श्राप का,
तो हिसाब हुआ कर्मों का फल तो हां तू मेरी बांसुरी का सार बन गई,
और मुझमें लीन हो गई,
लोग कहते हैं ये क्यों कि वे काभी एक ना हो पाएं क्योंकि -
क्योंकि लोग अधा सत्य जानकर मनगढ़ंत कहानी के बीच बोते हैं मगर आज मैं लेखक वासुदेव आपको बताना चाहता हूं कि मेरी विराह स्मृतियों ने मेरा प्रेम काव्य संग्रह प्रकाशित किया है,
कालचक्र के प्रभाव को नियंत्रित करने हेतु,
प्रेम का इस श्रपणनाडगर से विलीन व विलय होना अनिवार्य था इसलिए वह स्वयं ही अपने प्रेम अर्थात कालचकृ अधिपति श्री हरि विष्णु में जाकर विलुप्त हो गई जिसे संसार विराह स्मृतियों का आचरण कहता है वास्तव में वही प्रेम काव्य संग्रह है।।
इसलिए इस तरह हमारा मिलन संभव होने पर भी,
यह गाथा अनन्त से अन्त होकर बैकुंठ सिधार गई,
और इस तरह गाथा किसी स्त्री के प्रेम से संभव हो गई ।।
मगर वो ना जाने कौन सा युग था,
क्योंकि कलियुग में ना प्रेम वास है,
ना ही वात्सल्य भाव उजागर है,
प्रेम रस रूप श्री राधा नामिन भवति,
तथा वात्सल्य भाव सा यशोदा नामंकित,
यद्यपि कलियुग में ना श्री राधा प्रेम रूप रस है,
ना ही यशोदा नामंकित जैसा वात्सल्य भाव है
इसलिए यह गाथा श्री कृष्ण के कालचक्र से ग्रस्त स्त्री भाव अर्थात इच्छा के चक्रव्यूह में फंसकर भ्रमण करने लग जाती और यह गाथा अनन्त अमरसंकटी
#एक असंभव प्रेम गाथा अनन्त से अन्त में परिवर्तित वात्सल्य भाव व प्रेम भाव सथाई भाव
सम्पन्नता।।
प्रेम ने प्यार पर विजय प्राप्त की,
अस्तिव ने इज्जत पर विजय प्राप्त की,
समर्पण ने सौदे को नष्ट किया।।
मेरी डोली नहीं बोली लगती हैं,
मेरी रचना में मैंने कुछ ना रचा।।
मैं सर्वप्रथम सर्वोपरि होकर भी शून्य हूं।।
मेरे पंख है पर उड़ान नहीं,
मैं जिसकी हूं उसी की अधिपतिका नहीं।।
मैं सबकी हुई जग मां,
पर काऊनू नाही होऊ मेरा।।
मेरे रूप एक नहीं हैं,
ना ही मेरी परिभाषा एक है।।
अगर समझो तो किस्मत की लकीर हूं,
मैं एक वरदान हूं,
मगर अगर समझो अवशकता तो अनेक रूपों मेरा वास दिया हुआ वास शून्य ही कहलाता है।।

मैं नायिका व खलनायिका हूं,
मैं योधा व मैं ही प्रतिद्वंद्वी हूं,
अनेक योनि में में वास है मेरा क्योंकि
मैं असतिव की आसीमता व
स्त्रीत्व का सार व असतिव का नष्टांकं भी।।
अनेक रूपों में है प्रचलन मेरा मगर मैं ही परमात्मिका भी मैं ही हूं।।
जो कि कालचकृ का सार व असतिव कलि के कलियुग में इच्छा व स्वार्थ से ग्रस्त कलियौता की आसीमता व स्पष्टीकरण तथा मैं ही हूं।।
क्योंकि मैं ही प्रेम हूं जो कि कालचकृ श्रोत व विभकितश्रोत सून्य में भी कलियुग के कलियौता के दर्शित है।।

#सफलता
#प्रेमववात्सलय♥️🪔💐🙏🐄🪔
© मनमोहना