...

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“Mohabbat”
इक लफ़्ज़ मोहब्बत हुई थी जब
हम तन्हा तन्हा रहते थे
उस तन्हाई में खुश भी थे
उस तन्हाई के आदी थे
न लगता था कुछ इतना बुरा
यूँ तन्हा तन्हा रहना भी
न आदत थी किसी और की ही
न लगी ज़रूरत ही कभी युंही
मगर वक़्त भी जाने कैसे वो
कुछ धीरे धीरे यूँ आया
कोई हमको लगा अच्छा ऐसे
कि समझ न आया क्यूं जाने
फिर तन्हाई लगी
ऐसी बुरी
कि तन्हा तन्हा रहना ही
हमने है तबसे छोड़ दिया
अब तन्हा भी न रहते हैं
न तन्हाई की आदी हैं
हों तन्हा भी जब हम यूंही
तो फ़िर भी तन्हा न होते हैं
© Arshi zaib