मान गए भई पलटू राम
इस सृष्टि में बदलाहटपन स्वाभाविक है। लेकिन इस बदलाहटपन में भी एक नियमितता है। एक नियत समय पर हीं दिन आता है, रात होती है। एक नियत समय पर हीं मौसम बदलते हैं। क्या हो अगर दिन रात में बदलने लगे? समुद्र सारे नियमों को ताक पर रखकर धरती पर उमड़ने को उतारू हो जाए? सीधी सी बात है , अनिश्चितता का माहौल बन जायेगा l भारतीय राजनीति में कुछ इसी तरह की अनिश्चितता का माहौल बनने लगा है। माना कि राजनीति में स्थाई मित्र और स्थाई शत्रु नहीं होते , परंतु इस अनिश्चितता के माहौल में कुछ तो निश्चितता हो। इस दल बदलू, सत्ता चिपकू और पलटूगिरी से जनता का भला कैसे हो सकता है? प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "मान गए भई पलटू राम"।
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तेरी पर चलती रहे दुकान,
मान गए भई पलटू राम।
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कभी भतीजा अच्छा लगता,
कभी भतीजा कच्चा लगता,
वोहीं जाने क्या सच्चा लगता,
ताऊ...
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तेरी पर चलती रहे दुकान,
मान गए भई पलटू राम।
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कभी भतीजा अच्छा लगता,
कभी भतीजा कच्चा लगता,
वोहीं जाने क्या सच्चा लगता,
ताऊ...