...

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क्यों?
कभी-कभी खुद से, ये पूछना जरूरी हो जाता है
कि कौन हूं मैं, इस दुनिया से मेरा क्या नाता है

ये दुनिया जो इतनी सुंदर और हसीन दिख रही है
कौन मिटता है इसे और फिर इसे क्यों बनता है

बसंत आने पर खिलते हैं, नए फूल सभी पेड़ों पर
पतझड़ आते आते, सब कुछ क्यों मुरझा जाता है

फिजाएं हैं बहुत सारी, नजारे भी है बहुत सारे
पर कहीं कुछ है, जो अंदर ही अंदर तड़पता है

देखता हूं दुनिया को, जब भी मैं अकेला होकर
क्यों है इतनी भिन्नताएं, कुछ समझ नहीं आता है

ये ख्वाब, इश्क, मोहब्बत, दुख, दर्द, तन्हाईयां
कौन है जो चुपके से, ये सब दिल में भर जाता है

चंद पैसों के लिए, कोई किसी को क्यों रुलाता है
जिसे अपना समझो, क्यों वही दिल तोड़ जाता है

जो करता है कठिन मेहनत वही क्यों भूखे सोता है
किसी को लूट कर कोई, क्यों अमीर बन जाता है

जिसने दुनिया बनाई, हम इंसान को बनाया है
अपने ही बच्चों पर, क्यों उसे तरस नहीं आता है

जो सच्चाई पर चलता है, परीक्षा उसी की क्यों होती है
झूठ को अपना कर, कोई महान क्यों बन जाता है

अगर वो खुदा है कहीं, जिसने ये दुनिया बनाई है
तो वो क्यों इंसान को, इंसानियत देना भूल जाता है

कभी कभी मेरा मन, उस रब से पूछना चाहता है,
गर दुनिया बनाई, तो तू इसे देखने क्यों नहीं आता है

© Vineet