...

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मैं कवि हो जाता हूँ
मैं एक ऐसी दुनिया में चला जाता हूँ,

जहाँ,
वक़्त घड़ी से नहीं मापा जाता,
जहाँ,
चिड़ियों के चहचहाहट का मतलब
सुबह का चार बजना है,
सूरज का झुरमुट से झाॅंकना
सुबह का छ:,
सर पर सूरज का मतलब बारह।
गाय,भैंस,बकरियों का चरहा चरना
दुई बजना है....

मैं उम्र छोटा करके...
इधर-उधर छिपने लगता हूँ,
जामुन के पेड़ पर चढ़ जाता हूँ,
तीन आमों के बीच
पीले आम को निशाना बनाता हूँ।
और फिर रोपनी में
छपाक!छपाक!छपाक!!

यूँ हीं
घूमते-घूमते मैं दिल्ली चला जाता हूँ,
उसके पास बैठ कर
उसकी जुल्फों को बादल,
आँखों को समंदर,
चेहरे को चाॅंद...
वगैरह-वगैरह बताता हूँ।

नज़र जब बेबसी की
तरफ जाती है तो
स्त्री और मुफ़्लिस बन जाता हूँ।
लगन, मेहनत और सफलता
की याद आने पर
कौवा और कछुआ बन जाता हूँ.......

मैं यूॅं हीं बैठे-बैठे कवि हो जाता हूँ।।