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बचपन का सिख और उसके बदलते मायने
बचपन खूबसूरत होता है ,इसमें कोई कपट नहीं होती
बचपन मे सब सिखाते हैं सच बोलो, सबका सम्मान करो
बड़े बड़े सपने देखो और उनके पूरा होने पर भरोसा करो,
मेहनत करो पूरी, दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में होगी ।
बचपन के मासूम उम्मीदें जिंदा रखती हैं, हौसला देती है।
पर अक्सर बचपन के सिख बड़े होते होते अपने मायने बदल जाते हैं।
अब सच का कोई मोल नहीं होता और झूठ का बोलबाला
अब सम्मान और कदर ताकत की होती है इंसानों की नहीं
अब सपने कितने भी बड़े देखो वो पूरे नहीं होंगे, क्योंकि अब तुम दोगले समाज का हिस्सा हो
जहां सही गलत और अच्छे बुरे का फैसला अर्थ और ताकत से होता है,
सही का सही होने से और गलत का गलत होने से नहीं ।
अब उम्मीदे ना मासूम रही और न ही कोई उम्मीद का हाथ ।
सब बड़े होने के जद्दोजहद में अपनी मासूमियत खो दिए और कई उम्मीदें मिट गई उस भागदौड़ में ।
अब सच बोलना भी गुनाह सा लगता है
किसीपे भरोसा करने से डर लगता है
उम्मीदों का साथ भी छूट सा गया है
सपने अब अपने ना रहें
अपनों से लड़ने के सपने भी नही
सब छूट गया सब रूठ गए
अब ढूंढे चारो और तो कोई अपना रहा नहीं
अब न खुशी है , न ही कोई गम
बस अफशोस का पिटारा साथ चल रहा है ।
जिंदगी ना आगे बढ़ रही है, न खत्म हो रही है
दलदल में रेंगते रेंगते धस रही है अब जिंदगानी
बचपन को याद करके, शोक करके ।

© Dibyashree