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समय की मांग
सदियां बीत गए अपनों से मिले
अब तो आंगन में बताशे भी नहीं बंटते,

मां का दिल है कि मानता ही नही
द्वार पर एक रंगोली आड़ी टेड़ी बना ही देती।

रंग बिरंगे कतारें हैं ऊंची- ऊंची इमारतों पर
पर बिन दीए मिट्टी के पिता को चैन कहां।

दूर देश में बेटा-बेटी जंग है उनके भी अनेक
कहां भूला पाते वो बचपन की वो बातें हर एक।

समय की ये मांग है चल पड़े हर पथीक
शिकवे गिले की स्थान नहीं हर कोई ढूंढे मंजिल।

जो मिल जाए दीन-हीन उनसे आंगन रौशन करें
अपने तो अपने होते ही हैं, गैरों में भी रिश्ता ढूंढे।
नमस्कार।
रीता चटर्जी।
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