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औरत मन
दुनियाँ के रिवायतों में फंसी जान जाने क्यों निकल नहीं जाती।
उसूलों की गठरी बाँधी करिहाँव की कमर कसी भी नहीं जाती।।
औरत की क़लम! कितना कुछ कहना चाहती है दुनियाँ वालों।
देखी लाचारी क्यों उसकी धमक तुम्हें हनक देखी नहीं जाती।।
औरत मन पयोधि से गहरा, आँखों के उसकी तुम बात ना कहो।
काग़ज़ की कश्ती देह उसकी डुबोई क्यों तुम्हें बचाई नहीं जाती।।
माना कि नज़ाकत-ए-बारीकियां बेशुमार परोसी ख़ुदाबख़्श ने।
गढ़ी कभी मूरत, गढ़ी तो क्यों माँ बहन उसमें नज़र नहीं आती।।
अमरावती सा अस्तित्व उसका, ऐ मानुष जो काढ़ नहीं सकते।
फ़िर क्यों ये मुगलिया नज़र तुमसे झुकाई झुकाई नहीं जाती।।
© सोनी
उसूलों की गठरी बाँधी करिहाँव की कमर कसी भी नहीं जाती।।
औरत की क़लम! कितना कुछ कहना चाहती है दुनियाँ वालों।
देखी लाचारी क्यों उसकी धमक तुम्हें हनक देखी नहीं जाती।।
औरत मन पयोधि से गहरा, आँखों के उसकी तुम बात ना कहो।
काग़ज़ की कश्ती देह उसकी डुबोई क्यों तुम्हें बचाई नहीं जाती।।
माना कि नज़ाकत-ए-बारीकियां बेशुमार परोसी ख़ुदाबख़्श ने।
गढ़ी कभी मूरत, गढ़ी तो क्यों माँ बहन उसमें नज़र नहीं आती।।
अमरावती सा अस्तित्व उसका, ऐ मानुष जो काढ़ नहीं सकते।
फ़िर क्यों ये मुगलिया नज़र तुमसे झुकाई झुकाई नहीं जाती।।
© सोनी
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