...

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आदती इंसान क्यूँ है...
आसमान तलक आवाज़ आती तो है ।
इन पर्दों पे जाने मौन क्यूं है।
मेरी गली, मेरा शहर है फिर भी सब इतने अनजान क्यूं है।
मेरे लिए लोग गुमनाम क्यूं है।
अपनी उदासी छिपाकर मैंने
खुश रहने की हिदायत तो दी है,
खुद पर लागू करना
इतना मुश्किल काम क्यूं है।
ए ज़िन्दगी का नाम इम्तहान क्यूं है।
आसमान सी साफ तो मैं भी नहीं।
मेरी मौन दास्तां में कुछ अपना सच
कुछ अपनी खामी है।
फिर ये झूठ इतना परेशान क्यूं है।
न तुझको न उसको बदलने की फिराक में हूं।
मैं तो खुद इस उलझे हुए सवाल मैं हूं,
मेरे लहज़े में आज भी मौजूद वो आदती इंसान क्यूं है।

✍️मनीषा मीना