...

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अज्ञात
मुझे याद नहीं कब मैंने सपने संजोए थे,
कबसे कंधो पर भार ढोए थे,
नदी के जल सा करता था कलरव,
मुझे याद नहीं कब रहा अविरल ।
धरती की छाया देख,
धूप धाप में काया सेक
बगुलो सा चोंच मारता,
चला जा रहा हूं
बिन पथ बहा जा रहा हूं
लगता है सामने असमय मेरे
कोई धुंध फैलाए है,
दिखता नहीं आंखों से अब,
कोई आंखों पे ओट लगाए है।
इन कोमल सपनों को मधुर रात्रि में संजोता,
खुद को इनके बवंडर में खोता,
नदी के धार संग चले जा रहा हूं।
नदियों की भांति बहाव संग
बहे जा रहा हूं ।


© Anna