...

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लड़ते-लड़ते हार जाती है, वो
लड़ते-लड़ते हार जाती है, वो
अकेली है ना कहां सह पाती है वो ।
मुश्किलों से गुजरती है,
पर अपनी मुश्किलों बताती नहीं,वो।
हर उसका प्रयास विफल जाता है,
ऐसा लगता है उसे कुछ नहीं आता है।
सह-सह के भी अपने दर्द को बाहर नहीं निकलती,
खोजने को जाऊ अगर तो कहीं दूर नजर आती है,वो।
बुलाना तो चाहूं पर वो नहीं आ पाती है,
पता नहीं कैसे एक अकेली लड़की इतना कैसे सह पाती है।
तू हार ना मान बेहन हम साथ है, तेरे,
बदलाव है नटखट कहती है, "मैं एक दिन में नहीं होती,अगर हो तुम मे साहस तो प्रयास करके पाओ,मुझे ,वरना जाओ यहां से"
क्या ये कथन सही है कि " मैं असंभव है, पर मेरे से मेरा अ ले लो, मैं संभव है।"

यह कविता इतना अच्छा नहीं है,पर बैठे रहना भी विकल्प नहीं हैं।

© RR_जान