...

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स्त्री
जन्म, बचपन,
अरे नहीं नहीं,
वो लड़की है,
उसका बचपन और बचपना नहीं होता,
होती है तो सिर्फ घर चलाने,
और घर संभालने की जिम्मेदारियां,
और उन जिम्मेदारियों को सीखते हुए,
जब उसने जवानी के दहलीज पर कदम रखा,
तो फिर आ जाती है बाप भाई की इज्जत,
और इस इज्जत को संभालने का तमगा,
होता है इस फूल सी मासूम सी बच्ची पर,
और इसी निर्वाह में,
उसे किसी पराए के संग बांध दिया जाता है,
फिर शुरू होता है उसका जीवन,
इस आस में की अब शायद कुछ अलग हो,
नया परिवार नया घर,
और फिर आती है नई जिम्मेदारियां,
घर संभालना, बच्चे संभालना और घर की,
इज्जत संभालना,
बच्चों की परवरिश,
पति की जरूरतें,
घर की मान मर्यादा,
और घर को संवारना,
फिर तो पता ही नहीं चलता की,
कब वो अल्हड़ सी लड़की,
की जवानी खप जाती है,
समाज की बेड़ियों में,
और फिर आ जाता है बुढ़ापा,
बच्चों को संभालते संभालते,
कभी भी एक बार भी,
रुककर उसने खुद को आईने,
में निहारा ही नहीं,
अगर निहार पाती तो,
घर नहीं संभाल पाती,
और फिर समाज उसे उद्दंड कह कर पुकारता,
की अपना घर भी नहीं संभाल पाई,
बुढ़ापा, अकेलापन, तिरस्कार,
सब सहती सहती,
वो घर संभालने वाली अल्हड़ सी लड़की,
अब खुद को भी नहीं संभाल पाती है,
और अपने बच्चों के लिए बोझ सी बन जाती है,
डरी सहमी सी,
बस वो इस इंतजार में रहती है,
की कब वो फिर एक लंबी,
यात्रा पर निकल पाए,
और आखिर वो दिन आता है,
जब उसकी आत्मा,
इस शरीर को त्याग कर,
एक अनंत यात्रा पर निकल पड़ती है,
एक बेहतर कल,
और एक बेहतर जीवन की तलाश में.......
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