...

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स्वार्थ
जड़ हो चुकी संवेदना से प्रेमालाप को आतुर आशंकित भ्रमित से पूर्वाग्रहो को कंचन चंचलता कलंक लगे
पाशुविकता अहंकार तृप्ति
वर्चस्व की प्राप्ति
और क्या है जीवन का हासिल
मैं भी हु चेतन अभी
है मुझमें भी गर्म लहू
मेरी तत्परता परिहास मात्र
ये परतंत्रता कैसे हो परम भाग्य
तुझमें तू, मेरा कही नही
कहां हु मैं
सर्वत्र दिखे नित रोज दिखे
तेरा और तेरा स्वार्थ मात्र