ग़ज़ल...
एक पागल दीवाना, होकर आवारा फिरता है
तेरी मुहब्बत की चाह में, मारा-मारा फिरता है
बेमंज़िल-सा मुसाफिर, अन्जान-सी डगर का
वो दर-दर भटके, जैसे कोई बंजारा फिरता है
ना तो...
तेरी मुहब्बत की चाह में, मारा-मारा फिरता है
बेमंज़िल-सा मुसाफिर, अन्जान-सी डगर का
वो दर-दर भटके, जैसे कोई बंजारा फिरता है
ना तो...