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मन की दुविधा
सब कुछ है फिर भी कुछ कम है
अपना कुछ लगता ही नहीं
रोशनी फैलीं जहां में सारे
मन में तम फिर इतना क्यों है।।
कुछ कम है और कुछ पूरा है
आज़ाद ख्याल अधुरा है
स्वतन्त्र भारत होने पर भी
बंदिशों के जाल ने क्यों घेरा है
मन में है तुफान भरा
पर तन से शान्त दिखाना है
अपना कुछ लगता ही नहीं
सब कुछ यहां बेगाना है
आज जो अपने ,कल बेगाने
स्वार्थ के सारे रिश्ते क्यों है
रोशनी फैलीं जहां में सारे
मन मे तम फिर इतना क्यों है
घुटन भरी जीवन में पल पल
विचलित मन की विचलित हलचल
दुविधा का संघर्ष बड़ा है
कष्टों का पहाड़ खड़ा है
कौन कहै और किसे सुनाएं
मन की पीड़ा किसे बताएं
रोशनी फैलीं है जहां में सारे
मन में तम फिर इतना क्यों है
मन की बातें मन में रहती
खुद से खुद की बात ना कहती
आजादी का करना क्या है
खुद ही जब आजाद नहीं है
स्वयं बनाई दुःख की बेड़ी
तो शिकवा औरों से क्यों है
रोशनी फैलीं जहां में सारे
मन में तम फिर इतना क्यों है।।
© Srishti chaturvedi
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