दिल्ली में हूं
श्रम से चूर-चूर हो कर ,
दूर होकर अपनी प्रिया से ,
गिलता हूं चार दाने ,
जब पी-पीकर पानी !
तो याद आती घर की
मिट्टी से सनी पटिया !
सो चैन की नींद! और
यहां की जिंदगानी !!
काम से निकला हूं :
कुछ कम काम करके ;
सोच कर कि आगे और
काम अभी बाकी है !
चलते-चलते पथ पर ,
दिल्ली के उस रथ पर ,
धक्का मुक्की खाया हूं ;
मन थोड़ा धीमा है ,
जा रे ! बीमारियों का बीमा है ।
लेकिन मुझे अभी गढ़नी है
व्यस्तता की कहानी ।।
बस , भूला काम !
भूल गया सारा फोन नंबर
और दोस्तों के नाम !
वाह , याद रहा तो बस ,
लाल किला , जामा और दिल्ली पुरानी ।।
एक था साथ-साथ ,
पर हुई कभी न बात ।
अंतर नजर आता है :
मुझे दिल्ली का दिन ,
और उसे बॉम्बे की रात ।।
सजे दिखते हैं ,
अनुशासित भी दीखते।
चलते भी भीड़ में -
पांव पड़ते ही चीखते !
अच्छा है लेकिन
उसका अंग प्रदर्शन ?
मुझे तो यहीं बंद रहना है;
दरशन चंद करना है:
खिड़कियों से नानी का ;
कैसी है बेईमानी !
देख कर थकती हैं आंखें ,
थकता सिर औेर आ जाती नींद रानी।।
सुबह उठते ही चिंता रहती है ,
किसकी ? बॉस की
ना करता हूं निंदा ;
मैं हूं बच्चा , सच्चा हूं काम का,
लेकिन , उसकी मेहरबानी :
हूं जो नौकर चौबीस घंटों का ;
एहसान है उसके दाम का :
जब बुलाए सुबह या शाम ,
उसकी मर्जी , हो जाए आराम ,
या किए जाऊं काम ।।
भाई , लंबी सांस लेता हूं
जो खाता हूं पेट भर रोटी ।
दिन में वही खानी है ना ,
क्योंकि , होती नींद से उनकी दुश्मनी ,
जगी में दिखता हैवानी ।।
योग और भोग का अच्छा है मिश्रण यहां :
करता हूं भोग भर दिन ,
होता है रोग हर दिन ।
गुप्त कमरे में योग ....
को मुक्त... करना सीखता हूं !
सीखता हूं यह भी
समय पर कैसे हो शैतानी !!
© शैलेंद्र मिश्र शाश्वत 8/8/2012
#जीवन #यथार्थ
दूर होकर अपनी प्रिया से ,
गिलता हूं चार दाने ,
जब पी-पीकर पानी !
तो याद आती घर की
मिट्टी से सनी पटिया !
सो चैन की नींद! और
यहां की जिंदगानी !!
काम से निकला हूं :
कुछ कम काम करके ;
सोच कर कि आगे और
काम अभी बाकी है !
चलते-चलते पथ पर ,
दिल्ली के उस रथ पर ,
धक्का मुक्की खाया हूं ;
मन थोड़ा धीमा है ,
जा रे ! बीमारियों का बीमा है ।
लेकिन मुझे अभी गढ़नी है
व्यस्तता की कहानी ।।
बस , भूला काम !
भूल गया सारा फोन नंबर
और दोस्तों के नाम !
वाह , याद रहा तो बस ,
लाल किला , जामा और दिल्ली पुरानी ।।
एक था साथ-साथ ,
पर हुई कभी न बात ।
अंतर नजर आता है :
मुझे दिल्ली का दिन ,
और उसे बॉम्बे की रात ।।
सजे दिखते हैं ,
अनुशासित भी दीखते।
चलते भी भीड़ में -
पांव पड़ते ही चीखते !
अच्छा है लेकिन
उसका अंग प्रदर्शन ?
मुझे तो यहीं बंद रहना है;
दरशन चंद करना है:
खिड़कियों से नानी का ;
कैसी है बेईमानी !
देख कर थकती हैं आंखें ,
थकता सिर औेर आ जाती नींद रानी।।
सुबह उठते ही चिंता रहती है ,
किसकी ? बॉस की
ना करता हूं निंदा ;
मैं हूं बच्चा , सच्चा हूं काम का,
लेकिन , उसकी मेहरबानी :
हूं जो नौकर चौबीस घंटों का ;
एहसान है उसके दाम का :
जब बुलाए सुबह या शाम ,
उसकी मर्जी , हो जाए आराम ,
या किए जाऊं काम ।।
भाई , लंबी सांस लेता हूं
जो खाता हूं पेट भर रोटी ।
दिन में वही खानी है ना ,
क्योंकि , होती नींद से उनकी दुश्मनी ,
जगी में दिखता हैवानी ।।
योग और भोग का अच्छा है मिश्रण यहां :
करता हूं भोग भर दिन ,
होता है रोग हर दिन ।
गुप्त कमरे में योग ....
को मुक्त... करना सीखता हूं !
सीखता हूं यह भी
समय पर कैसे हो शैतानी !!
© शैलेंद्र मिश्र शाश्वत 8/8/2012
#जीवन #यथार्थ