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जीने की तमन्ना
जीने की तमन्ना

बड़ी हिम्मत की थी उसने,
वो चिथड़ा लपेटने को,
स्वाभिमान को ताक पे रख,
लोगो की घूरती नज़रों,
दुत्कारों के बीच,जीने को।
चिलचिलाती कड़ी दोपहरी में,
कड़ाके की बदन कंपाने वाली ठण्ड,
तेज़ वज्र समान प्रहार
करती बारिश में।
बदन को एक रत्ती में लपेटे,
पेड़ की ओट तले,
कभी मंदिरों की चौखट पर बैठ
हाथ फैलाने को।
न सोने को शय्या,
न ओढ़ने को चादर,
कभी पगडंडियों पर रात गुजर गई,
किसी दिन पटरियों पर।
खाने को मिल गयी
कभी दो रोटी,किसी दिन
पानी के सहारे।
मौत का आगोश शायद
ज्यादा सुकून देता उसे।
इस निर्मम जमाने में,
जिल्लत भरी ज़िन्दगी से।
मगर जीने की तमन्ना
ज्यादा तीव्र थी उसकी
जो काल को आँखें दिखा गया।