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!...भूख से बिलकती कलिया...!
हमसे न पूछ के हमने यहां क्या पाया है
दर्दे दिल जख्मों सितम बर्बादे जहां पाया है!
काले तख्तों पे सजे, सोने से लिखे काले कानून
इन्हीं कानूनों ने इंसानों में फरक पाया है!
जो हथियारों के जखीरो के दम पर खुदा बनते है
जलते हुए शहरों में, लाशों के सिवा क्या पाया है!
जिनसे रुसवा है चमन के ये बहारों बुलबुल
बाग के फूलों से पूछो खिजां से क्या पाया है!
आज खौफ से थर्राई हुई सहमी हुई आवाजे है
हमने झुक कर खुदा, इंसानों से क्या पाया है
मैं तो डरता हूं सहरा से ना गुम हो जाएं बुलबुल
तेरे कुंचो में कभी मजनू ने भी कुछ पाया है
हक की आवाज सुन हस पड़ते है गद्दारे वतन
सर जो देते है वतन को.. बस कफन पाया है
–_12114
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