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बारह वर्षीय कुंभ मेला
सागर मंथन मिल कियो, सुर अरु असुर समाज।
मथनी मंद्राचल गिरी, रस्सी वासुकी अहि राज।।
तब प्राप्त हुए चौदह रतन, और वारुणी मदमस्त।
अति श्रम हारी काम था,पर हुआ न कोऊ पस्त।।
चौदह में धनवंतरी, हुए प्रकट कुंभ अमि धार।
मोहनी रूप बनाय हरी, बांटे पंक्ति के अनुसार।।
देवन को अमरत देवे, असुरन को मदिरा पान।
राहु जान्यो भेद को, बैठो जा सुर संग जान।।...