वजूद
ज़र्रे-ज़र्रे में ज़िंदगी समाई है
फिर क्यों ये तन्हाई जितनी, समंदर में गहराई है
वाक़िफ़ हैं हक़ीक़त से मगर फिर भी ज़िंदगी, आज़माई है
आज़माए इतने गए की अब भरोसे पर ही, शक़ घिर आई है
ख़ामोशी एक जवाब और सवाल भी है, कितनों को समझ आई है
नज़र, नज़ारे देखती है क्या ख़ुद की...
फिर क्यों ये तन्हाई जितनी, समंदर में गहराई है
वाक़िफ़ हैं हक़ीक़त से मगर फिर भी ज़िंदगी, आज़माई है
आज़माए इतने गए की अब भरोसे पर ही, शक़ घिर आई है
ख़ामोशी एक जवाब और सवाल भी है, कितनों को समझ आई है
नज़र, नज़ारे देखती है क्या ख़ुद की...