...

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तुम्हारा समान

और भी शाम से तुम याद आरही हो
कुछ समान आज खुद से दूर किया
वो आँख का काजल वो होंठो की लाली
वो इत्र की शीशी वो माथे की बिंदी
और भी जाने क्या क्या
बस कुछ समान अलग नही कर पाया
एक तुम्हारा सिंदूर दानी और
तुम्हारी पायल, हिम्मत ही नही हुई
पता है मैं जानबूच कर तुम्हारी
दराज को कभी देखता नहीं था
पर आज कुछ ज़ादा ही एहसास हो रहा है
की तुम नहीं हो कहीं नही हो....
© 𝕤𝕙𝕒𝕤𝕙𝕨𝕒𝕥 𝔻𝕨𝕚𝕧𝕖𝕕𝕚