...

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तुम कहते हो।
( तुम --इंसान के अंदर छिपा हुआ उसका आपना आप )

बिना चमके ही, टूट जाने को तुम कहते हो!
बिना खिले ही,सूख जाने को तुम कहते हो!
माना कि बुलबुले की ,ज़िन्दिगी है बड़ी मुख्तसर्
मगर बिन बुलबुला बने ही, फूट जाने को तुम कहते हो!
माना कि नदियों का भी,अंत हो जाता है एक दिन पर,
बिन समुन्द्र से मिले ही ,ठहर जाने को तुम कहते हो!
सच है कि ज़िंदगी, आसां नहीं है फिर भी.....

ऐ दोस्त!

बिन ज़िंदगी जिए ही, मर जाने को तुम कहते हो?


© fayza kamal