शीर्षक : पीड़ा एक बांझ स्त्री मन की
हाँ , बांझ हूँ मैं।
अपने कोख से
जन नहीं सकती है एक नव सृष्टि ,
नहीं दे सकती मैं एक अतिसूक्ष्म कण को जीवन।
हाँ , पर इसमें दोष नहीं मेरा
फिर भी क्यों सुनने पड़ते हैं ताने मुझे हमेशा
इस समाज से वक्त - बेवक्त ।
कुलच्छनी, बांझ, कलमुँही
ना जाने क्यों ये सारे शब्द आते हैं मेरे हिस्से
बिना कोई गलती किये बिना ही ।
हाँ , मैं बांझ हूँ
पर ममत्व की थोड़ी - सी भी कमी नहीं मुझमें
ममता का अतिगहरा सागर मेरे अंदर
मेरे हृदय की गहराइयों में सदैव बहता रहता है ।
देखकर किसी बच्चे को हिचकोले है खाता ये
उमड़ पड़ता है उसपर ,
अपनी सारी ममता को पूर्ण रुप से लुटा देने के लिए लेती हूँ जब मैं भी
किसी नवजात शिशु को अपने गोद में
मेरा भी बहुत जी करता...
अपने कोख से
जन नहीं सकती है एक नव सृष्टि ,
नहीं दे सकती मैं एक अतिसूक्ष्म कण को जीवन।
हाँ , पर इसमें दोष नहीं मेरा
फिर भी क्यों सुनने पड़ते हैं ताने मुझे हमेशा
इस समाज से वक्त - बेवक्त ।
कुलच्छनी, बांझ, कलमुँही
ना जाने क्यों ये सारे शब्द आते हैं मेरे हिस्से
बिना कोई गलती किये बिना ही ।
हाँ , मैं बांझ हूँ
पर ममत्व की थोड़ी - सी भी कमी नहीं मुझमें
ममता का अतिगहरा सागर मेरे अंदर
मेरे हृदय की गहराइयों में सदैव बहता रहता है ।
देखकर किसी बच्चे को हिचकोले है खाता ये
उमड़ पड़ता है उसपर ,
अपनी सारी ममता को पूर्ण रुप से लुटा देने के लिए लेती हूँ जब मैं भी
किसी नवजात शिशु को अपने गोद में
मेरा भी बहुत जी करता...