...

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रुक्मिणी की व्यथा
आज निशब्द खड़ी हूं मैं, हे गोविंद। आ जाएं,
भिजवाया था प्रेम निमंत्रण, मुझे उत्तर मात्र ही दे जाए,

नहीं ज्ञात की आप पर, क्या मेरा अधिकार है,
मैं रम गयी हूँ प्रेम में, आप ही रगों में सवार है,

आज नयन में अश्क है बस, मन उद्विग, दिल भारी है,
ना जिज्ञासा, बस उथल-पुथल है, और प्रेम की चिंगारी है,

नहीं जानती ये स्वार्थ है, या है मेरा ये प्रेम बस,
की मांगती हूँ आपको ही, प्रेम में होकर विवश,

कुछ भाव लिखे थे मैंने बस, कुछ प्यार मेरा भी ले जाते,
कहाँ लीन, कहां ध्यानमग्न है, कोई संकेत तो दे जाते।

© Vishakha Tripathi

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