शीर्षक: गाँव का उदास कुँआ
(एक भावपूर्ण साहित्यिक सृजन)
शीर्षक: गाँव का उदास कुँआ
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
जो कुँआ जीवन उपवन था
वह अब उजड़ा बाग बना ।
जिसकी तृषा तृप्त की दशकों
उसी गाँव का दाग बना ।
जिसके मृदुमय शीतल पय के
हम गुण कह कर नहीं अघाते ।
गाँव बसे जन उनकी छोड़ो
पशु पक्षी जल पी हर्षाते ।
अहो ! अभागे कूप तुम्हारे
दुर्दिन आज प्रबल देखे ।
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
कैसा निष्ठुर खेल काल का
उलट- पुलट हो चली कहानी ।
अक्षय जल के स्रोत लुटाये
परहित में सब ढली जवानी ।
वृद्ध विवश अब मुंडेरों के
आहत दृग से झाँक रहा है ।
यथा पुण्य पथ चला पथिक भी
कर्म स्वयं के आँक रहा है ।
विस्मित सा है ! सत्कर्मों के
क्यों कर यह प्रतिफल देखे ?
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
मुख पर अब तक भी रसरी के
जिसके गहरे घाव बने हैं ।
भूल गया क्यों निर्मोही मन ?
रह - रह उठते भाव घने हैं ।
यह कृतघ्न जग उपकारों को
मान नहीं दे सका कभी ।
समय हुआ अनुकूल, बिसारे
दु:ख विपदा के सखा सभी ।
जीवन देने वाले से भी
करते नर नित छल देखे ।
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ - बहनों के दल देखे ।।
© @Ankit
शीर्षक: गाँव का उदास कुँआ
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
जो कुँआ जीवन उपवन था
वह अब उजड़ा बाग बना ।
जिसकी तृषा तृप्त की दशकों
उसी गाँव का दाग बना ।
जिसके मृदुमय शीतल पय के
हम गुण कह कर नहीं अघाते ।
गाँव बसे जन उनकी छोड़ो
पशु पक्षी जल पी हर्षाते ।
अहो ! अभागे कूप तुम्हारे
दुर्दिन आज प्रबल देखे ।
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
कैसा निष्ठुर खेल काल का
उलट- पुलट हो चली कहानी ।
अक्षय जल के स्रोत लुटाये
परहित में सब ढली जवानी ।
वृद्ध विवश अब मुंडेरों के
आहत दृग से झाँक रहा है ।
यथा पुण्य पथ चला पथिक भी
कर्म स्वयं के आँक रहा है ।
विस्मित सा है ! सत्कर्मों के
क्यों कर यह प्रतिफल देखे ?
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ बहनों के दल देखे ।।
मुख पर अब तक भी रसरी के
जिसके गहरे घाव बने हैं ।
भूल गया क्यों निर्मोही मन ?
रह - रह उठते भाव घने हैं ।
यह कृतघ्न जग उपकारों को
मान नहीं दे सका कभी ।
समय हुआ अनुकूल, बिसारे
दु:ख विपदा के सखा सभी ।
जीवन देने वाले से भी
करते नर नित छल देखे ।
वह पनघट का चौक जहाँ
कल चहल पहल के पल देखे ।
नीर छलकते घट ले जातीं
माँ - बहनों के दल देखे ।।
© @Ankit
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