...

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दर दर भटकता रहा
डर डर भटकता रहा तू इश्क़ की चाह मे।
एक बार आईने मे खुद को देख लेता,
खुद से मोहबत्त करना सीख लेता,
तो यूँ ना भटकता अनचाही रह मे,
दर दर भटकता रहा तू इश्क़ की चाह मे।
खुशियाँ खरीदने निकला था तू,
पर ऐ नादान परिंदे,
खुशियाँ बिकती नहीं भरे बाजारों मे।
इश्क़ की कोई पहचान नहीं,
इससे तू भी अनजान नहीं,
बस खुद के पहचान,
फिर कहना इश्क़ करना आसान नहीं।
भूल सा गया है तू खुद को इस भीड़ मे,
सिमट कर रह गयी सारी ख्वाहिशे किसी छोर मे,
दर दर भटकता रहा तू इश्क़ की चाह मे।