...

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उसकी हर अदा में
मुहब्बत से लबरेज़ उसकी हर अदा में, अदावत नज़र आती है,
वो बोलती नहीं, पर उसकी चुप्पी में भी बग़ावत नज़र आती है,

वो अपने रक़ीब को भी, बड़ी मुहब्बत से क़त्ल किया करते हैं,
न कहो क़ातिल, हमें इसमें भी उनकी सख़ावत नज़र आती है।

बुलाते हैं वो आशियां-ए- क़ल्ब में, चश्म-ए-नज़र से हमें जब,
हमें तो उनकी हर निगाह में, फिर बस दावत ही नज़र आती है।

जरा सी तल्ख़ है ज़ुबां उनकी, पर इसमें न कोई क़सूर उनका है,
गमज़दा हर तंज़ में उसके, हमें बस हलावत ही नज़र आती है।

हमने अक़्सर उन्हें, जुगनूओं को अंधेरों से बस मिलाते देखा है,
उनकी इस हरक़त में भी हमें, तो बस ज़कावत ही नज़र आती है।
© Pankaj Bist 'Ruhi'