कहां थे अब तक?
बसंत की इस धूप में बैठी सोच रही हूं
कि उम्र की दोपहरी ढलान पर है
और
कितने बसंत बिना उत्साह के बीत गए ,
कितने फाग बस तन को अबीर लगाकर चले गए,
मन को गुलाल का एक टीका भी न लगा पाए।
कितनी दीपावलियां बस दिल जला,
दीप जलाने की औपचारिकता भर हुई।
कितने सावन बरस चुके हैं?
तन मन की व्यथा बहाने की कोशिश में
अकेले भीगते हुए।
घेवर और फिरनी बेस्वाद लगे।
तीज के झूले झूलने और हाथों में
मेहंदी रचाने का उछाह न आया।
पूर्णिमा के हर चांद की तरह
शरद के चांद ने भी...
कि उम्र की दोपहरी ढलान पर है
और
कितने बसंत बिना उत्साह के बीत गए ,
कितने फाग बस तन को अबीर लगाकर चले गए,
मन को गुलाल का एक टीका भी न लगा पाए।
कितनी दीपावलियां बस दिल जला,
दीप जलाने की औपचारिकता भर हुई।
कितने सावन बरस चुके हैं?
तन मन की व्यथा बहाने की कोशिश में
अकेले भीगते हुए।
घेवर और फिरनी बेस्वाद लगे।
तीज के झूले झूलने और हाथों में
मेहंदी रचाने का उछाह न आया।
पूर्णिमा के हर चांद की तरह
शरद के चांद ने भी...