मन के अल्फ़ाज़
मन के अल्फाज़
खुद को तोड़ हम यूं अलग बैठे है,
अपनी खामोशी को फिर से थाम कर बैठे है,
अकेले की इस सफर में,
साथ का वादा अधूरा रहा है,
फिर से मैं अपनी ज़िंदगी में अकेली पड़ी हूँ,
आज फिर से मैं अपनी ख़ामोशी को साथ लिए बैठी हूँ,
किससे कहूँ अपनी मन की बात,
की आज मैं फिर से उस सपनों से दूर हो गई हूँ,
इतने सुंदर सफ़र पर मैं,
आज फिर से अकेली पड़ गई हूँ।
© Srishti Morya
खुद को तोड़ हम यूं अलग बैठे है,
अपनी खामोशी को फिर से थाम कर बैठे है,
अकेले की इस सफर में,
साथ का वादा अधूरा रहा है,
फिर से मैं अपनी ज़िंदगी में अकेली पड़ी हूँ,
आज फिर से मैं अपनी ख़ामोशी को साथ लिए बैठी हूँ,
किससे कहूँ अपनी मन की बात,
की आज मैं फिर से उस सपनों से दूर हो गई हूँ,
इतने सुंदर सफ़र पर मैं,
आज फिर से अकेली पड़ गई हूँ।
© Srishti Morya