...

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बदलते ज़ज्बात...
बेशक, तुम इन दरवाज़ों को बंद तो कर रहे हो
हाँ थोड़ी सी जगह छोड़ देना शिकायत के लिए...

नाराज़गी रख रहे हो हमसे, और जायज भी है
ज़रा गुंजाइश तो रहे मनाने की रवायत के लिए...

क्या फर्क कि जमाना दुश्मन हुआ जाता है तेरा
मैं तो खड़ा रहूंगा हमेशा, तेरी हिमायत के लिए...

तुझे पूछने पर भी न बताएगा, कोई रास्ता यहाँ
मग़र पीछे सब रहेंगे, फिजूल हिदायत के लिए...

तुम तो दिल खोल कर, प्यार लुटाते थे हम पर
आज क्यों बांदे हैं इक नजर ए इनायत के लिए...

वैसे मैंने तो कभी भी, तुझसे कुछ ना मांगा था
फ़िर भी तेरा एहसानमंद हूँ इस रियायत के लिए...

वो जो कहते थे कभी भी आना यहीं पर मिलेंगे
पता चला सामान बाँध रहे है विलायत के लिए...

हम तो आशना तक न थे, कभी इश्क़ के नाम से
कहीं न कहीं तू जिम्मेदार है इस शरायत के लिए...
© Naveen Saraswat