...

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आज की पीढी
वो अपने घर को ऐसे सजाने लगे
अपने पुरखों की यादें मिटाने लगे,

बूढ़े माँ बाप किसके ठिकाने लगे
बोझ सा जब ये बच्चे जताने लगे,

बेच दी गाँव की वो जमीनें सभी
खुद को हम हैं शहर के बताने लगे,

खर्च पड़ता नही पूरा है आजकल
जबकि मिलकर के दोनों कमाने लगे,

खरीदारी की ऐसी ये लत लग गयी
क़िस्त भरने में ये जिंदगी कट गयी,

खो गया सब सुकूँ, नींद भी खो गयी
मरने-जीने की सब पॉलिसी हो गयी,

सच की राहों पर चलने की ताकत कहाँ
झूठ के जब गलीचे बिछाने लगे,

बात ईमान की कोई कैसे करे,
हद से ज्यादा जब खुद को दिखाने लगे,

ज्ञान की दो किताबें पढ़ी क्या गयीं
आस्था पे ही उँगली उठाने लगे,

खींचकर कश वो,सिगरेट की जोर से
धूप, दीपों से पॉल्युशन बताने लगे।

दुःख मे कांधे पे सिर जाके किसके रखें
रिश्तों से थे जो अबतक किनारा किये।
© sapna