...

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गंतव्य
करूँ मैं उसका क्या
पाया मैंने जो अब तक
छिपने की भी बात नहीं
छिपना भी किसको आता है
चेहरा अंदर रहता है
धड़ बाहर दिखा जाता है |
संकल्प ले रहा मैं अब से
आगे का जीवन जीने को
शायद मिल जाए मुझको भी
थोड़ा सा अमृत पीने को
नई राह मैं खोज रहा
चल सकूं अकेला मैं जिस पर
पीछे चाहे कोई भी
पर आगे ना आए कोई
बस सोच हमारी आगे को
गंतव्य मिले शायद मुझको |

© देवेश शुक्ला