...

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"ख़बरदार उसे कवि कहा तो"
इस कविता पर बिन सोचे समझे,
कुछ मैं भी ताली दे दूँगा।।
पर खबरदार उसे कवि कहा तो,
कुछ मैं भी गाली दे दूँगा।
शब्द नहीं रसदार मिले तो,
कुछ मिर्च-मसाला जैसा हो।
भाड़े के टट्टू दिन भर बोलें,
हर महफ़िल में कवि ऐसा हो।
जो स्वादहीन लगे भोजन मुझको,
मैं अपनी थाली दे दूँगा।
पर खबरदार उसे कवि कहा तो,
कुछ मैं भी गाली दे दूँगा।
होठों पर जब शब्द चिपकते,
कहते हो कवि गूँगा है।
फिसल गई जो जुबाँ कवि की,
कहते चिकना मूँगा है।
गिरा जो झुमका झूमते-झूमते,
मैं कान की बाली दे दूँगा।
पर खबरदार उसे कवि कहा तो,
कुछ मैं भी गाली दे दूँगा।
जो चोरी हो जाए कवि की कविता,
रपट नहीं कोई लिखवाते।
महफ़िल में सब भिगो-भिगो कर,
दे ऊखल में सिर पिटवाते।
जो कविता में कुछ खोट मिला तो,
कहते नोट मैं जाली दे दूँगा।
पर खबरदार उसे कवि कहा तो,
कुछ मैं भी गाली दे दूँगा।

भूपेन्द्र डोंगरियाल
12/09/2020


© भूपेन्द्र डोंगरियाल