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तरस जाता है मन
#अलविदा
तरस जाता है मन अपने हीं आदतों को छोड़ने में ।
भटक जाता है मन अपने हीं सपनों को टूटने पे ॥
रिश्ता इतना गहरा होता है कि भूल नहीं पाता है मन ।
आदतों को मन भूला दे पर भूला नहीं पाता है तन ॥
जड़ें इतनी मजबूत होती है हमारी हीं आदतों की ।
बार बार छोड़ने पर दिला जाती है मन आदतों की ॥
ये अपनी आस्था कहें या कहें बहके मन की गथा ।
जिसने इसको बनाया वहीं सुना रहा है अब कथा ॥
डोर इतनी भी मजबूत ना रखों बुरी आदतों की ।
तोड़ दो झट से बहुत बुरा होता है कहर बुरे आदतों की ॥
© ✍️ विश्वकर्मा जी
तरस जाता है मन अपने हीं आदतों को छोड़ने में ।
भटक जाता है मन अपने हीं सपनों को टूटने पे ॥
रिश्ता इतना गहरा होता है कि भूल नहीं पाता है मन ।
आदतों को मन भूला दे पर भूला नहीं पाता है तन ॥
जड़ें इतनी मजबूत होती है हमारी हीं आदतों की ।
बार बार छोड़ने पर दिला जाती है मन आदतों की ॥
ये अपनी आस्था कहें या कहें बहके मन की गथा ।
जिसने इसको बनाया वहीं सुना रहा है अब कथा ॥
डोर इतनी भी मजबूत ना रखों बुरी आदतों की ।
तोड़ दो झट से बहुत बुरा होता है कहर बुरे आदतों की ॥
© ✍️ विश्वकर्मा जी
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