...

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तुम
कितना कुछ हो कर भी ,वह क्या है जो नहीं है ?
सब कुछ हो कर भी,ऐसा क्यों है कि, कुछ भी नहीं है ?
ऐसा क्यों है कि
जिस भी शख्स से मिलती हूं
तुमको ढूंढा करती हूं
कभी उसकी बातों में, कभी उसकी आंखों में
कभी उसके वादों में,कभी हल्की सी मुस्कुराहटों में
मगर फिर भी
तुमसा कुछ भी नहीं मिलता ,
कितना कुछ है जिसे पा लेना चाहती हूं
कितना कुछ है जिसे खो चुकी हूं ,
मगर फिर भी, ऐसा क्यों है कि
मेरी ख्वाहिशों का काफिला तुमसे ही शुरू होता है ?
ऐसा क्यों है कि हर खोने वाले शख्स में तुमको देखा करती हूं?
मगर जिसको पा चुकी हूं ,वहां तुम नहीं दिखते ,
कभी भी नहीं ,कहीं भी नहीं !
कितना कुछ है जो खुदा से मांग लेना चाहती हूं
कितना कुछ है जिसे अब स्वीकार कर चुकी हूं ,
कितना कुछ है जिसे भूल जाना चाहती हूं
कितना कुछ है जो हर वक्त याद आता है ,
जैसे कि तुम ।
© Sakshi mishra