...

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कड़ाके की ठंड

कड़ाके की ठंड और कोहरे का घना साया हुस्न-ए-आला पर,
खानाबदोश हो फ़िर रहे थे, हम इश़्क की गली में यूँ दर-बदर।

एहसासों से सराबोर हुए पुरज़ोर, हवाओं से दिल का आलम बहका,
फ़कीर बन घुमने लगे रफ़्ता-रफ़्ता आगोश में आग से हो तरबतर।

बहके-बहके से है दो ज़िस्म, बर्फ़ से जम रहे है ख़्याल कम्बल पर,
आशियां हो रहा सुकूँ का ख़ज़ाना, अदा किए मौसम को नूर-ए-नज़र।

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© LopaTheWriter